शहर के शोर में कहीं ग़ुम हो गयी है दोस्ती, चलो फिर गाँव चलें, पीपल के छावँ चलें, तुम बनाओ एक कागज़ की नाव, मैं बस्ते में सपनों को भरता हूँ, उतार कर बरखा में नाव, चलो धरती के उस पार चलें, चलो फिर गाँव चलें।
क्यूँ आते हो फिर सपनों में , क्या हक़ है मुझे रुलाने का? ये आँसू ही हैं धन मेरा , ये आँसू ही साथी मेरे... क्या इन्हे भी ले लोगे मुझसे? . लेना है तो ले जाओ ना इन सोनी सोनी यादों को, हर रोज संभाले रक्खा हूँ जिनको तकिये के नीचे मैं, लेना है तो ले जाओ ना उन कसमों को उन वादों को, हर रोज संभाले रक्खा हूँ जिन्हें चादर की सिलवटों में, पर नयन नीर मेरे रहने दो, है पीर मेरे , मेरे रहने दो, . सब पथ में मैं एकाकी हूँ, ये आँसू ही हमराह मेरे, ये आँसू ही हैं धन मेरा , ये आँसू ही साथी मेरे..।