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चलो गाँव चलें।

शहर के शोर में कहीं ग़ुम हो गयी है दोस्ती, चलो फिर गाँव चलें, पीपल के छावँ चलें, तुम बनाओ एक कागज़ की नाव, मैं बस्ते में सपनों को भरता हूँ, उतार कर बरखा में नाव, चलो धरती के उस पार चलें, चलो फिर गाँव चलें।
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आँसू मेरे

क्यूँ आते हो फिर सपनों में , क्या हक़ है मुझे रुलाने का? ये आँसू ही हैं धन मेरा , ये आँसू ही साथी मेरे... क्या इन्हे भी ले लोगे मुझसे? . लेना है तो ले जाओ ना इन सोनी सोनी यादों को, हर रोज संभाले रक्खा हूँ जिनको तकिये के नीचे मैं, लेना है तो ले जाओ ना उन कसमों को उन वादों को, हर रोज संभाले रक्खा हूँ जिन्हें चादर की सिलवटों में, पर नयन नीर मेरे रहने दो, है पीर मेरे , मेरे रहने दो, . सब पथ में मैं एकाकी हूँ, ये आँसू ही हमराह मेरे, ये आँसू ही हैं धन मेरा , ये आँसू ही साथी मेरे..।

तिल

ये जो तुम तिल को दरबान बनाये रख्खे हो, बशीरा सबको हैरान बनाये रख्खे हो। क़ातिल निगाहें आगाज़ भी करती हैं, रुलाती भी हैं, हुक़ूमत तुम्हारी है, ये कैसे हुक्मरान बनाये रक्खे हो। ख़ता तुम्हारी, और तुम्हारे हक़ में फैसला भी, बेमुरौवात हो, मज़नुओं का क्या हाल बनाये रख्खे हो। इक अर्से से अर्जि है की मेरे हिस्से में मिलो तुम, अदालत तुम्हारी है, जाने कहा मेरे दरख़्वास्त दबाये रख्खे हो। तक़रीर-ए-हुस्न में एक क़िताब हो जाये, लब ग़ुलाब, रुख़ चाँद सा... और केशुओं को आसमान बनाये रख्खे हो। ये जो तुम तिल को दरबान बनाये रख्खे हो। बशीरा सबको हैरान बनाये रख्खे हो।

बरखा

बरखा की नवल बूँद, कोयल की मृदुल कूक, सावन का काम रूप देख, मैं मोहित हो जाता हूँ, सम्मोहित हो जाता हूँ, बेबस सा पिछली यादों में मैं खिंचा चला जाता हूँ। वो बूँद जो माथे को छु कर वछ से नाभि तक जाती है, वो प्रथम मिलन का मन्त्रमुग्द आलिंगन याद दिलाती है, फिर पुरवाई अधरों को छूकर मन्द मन्द मुस्काती है, जो अमलतास के पत्तों से झर झर के बुँदे आती हैं, वो बून्द नही सब मोती है, मेरी आँखे है, रोती हैं। वो पुरवाई कोई और नहीं, बस तुम ही हो कोई और नहीं। ... एक आह्वाहन है बरखा से, इस बार जरा एहसान करो, मैं ना जानू वो कहाँ गया, तुम सुनो मेरा एक काम करो, कुछ आँसू लो मेरे आँखों से, वो जहां दिखे बरसा देना, था चाँद क्यों अम्बर भूल गया? उसे मेरी तलब लगा देना।

सपनों की बातें

एक दिन बैठा था मैं छत पे कहने लगा चमकता चाँद, किसकी यादों में खोये हो तुम कैसे स्वप्न सजाते हो? आधी रात बीत गयी जाकर, क्यों नही तुम सो जाते हो? मैंने कहा: नींद मेरी तुझ जैसे ने ही चुरा लिया, मै भी अब तक सो जाता था, उसकी यादों ने जगा दिया। जब कभी भी मेरी आँख लगे उसके ही सपने आते हैं, जब जगता हूँ तो ना जाने वो दृश्य कहाँ खो जाते हैं। फिर कहता हूँ की कौन है वो? उसका मुझसे क्या नाता है, क्या जुड़ा है मेरे जीवन से जो कुछ सपने में आता है? आखिर वो मुझको ऐसे क्यों पल पल यूँ ही तड़पाता है, मैं तो कुछ समझ नही पाता, न वो स्पष्ट बताता है। या शायद मेरा उसका कोई पूर्व जन्म का नाता है, डरता है वो किसी बात से या शायद घबराता है। जब कभी पूछना चाहूँ तो ये होंठ मेरे सिल जाते है, इस बात से नही की डरता हूँ ये सोचने मैं लग जाता हूँ, आखिर तू ऐसी चीज कहा क्यों धोखे में आ जाता हूँ?
काफ़िरो का शहर है, जरा इश्क़ का आगाज़ होने दो, इधर तो शोर काफी है, थोड़ा उधर भी आवाज़ होने दो।

अपराधी

मत रंगों मेरे सपनों को, इन्हें उजला ही रहने दो। कल के तुम फिर चले गए तो? रंग सब फीके पड़ जायेंगे। कोयल की कूक, बंसी की धुन, झरने का संगीत, सागर के गीत, सब तीखे पड़ जायेंगे। स्वार्थ हो गया न तुम्हारा, पता है अब तुम नही रुकोगेे। फिर मेरे चादर की सिलवटें बढ़ जाएँगी, चाँदनी मुझ पर अलग ही रौब दिखायेगी, सितारे भी तानें मारेंगे "लो तुम्हारा चाँद तुम्हे फिर छोड़ गया", मैं एक अपराधी सा सब कुछ सह लूंगा, चछु सागर फिर बहेगा एकांत की ओर, पकड़ के एक लहर उसकी मैं भी साथ में बह लूंगा।